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Last Updated: 2018/05/27
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ईमान क्या है?
question
ईमान क्या है?
Concise answer
आध्यात्मिक विषयों से गहरे लगाओ को ईमान कहते हैं जो इन्सान के समीप बहुत पवित्र और मुक़द्दस होते हैं, और इन्सान उनके लिए अपनी मोहब्बत और बहादुरी दिखाने को तय्यार रहता है.
क़ुरआन में ईमान के दो पंख  बताये गये हैं:इल्म(ज्ञान) और अमल(कर्म)). क्योंकि इल्म, अमल के बग़ैर कुफ़्र के साथ भी जासकता है और अमल, इल्म के बग़ैर निफ़ाक़(पाखंड) के साथ भी रह सकता है.
इस्लामी धर्मशास्त्रियों के बीच इमान के बारे में तीन तरह के नज़रिये हैं:
. अशाएरह: इमान यानी अल्लाह के होने, उसके नबियों और उसकी आज्ञाओं को मानना.
. मोतज़ेला: ईमान यानि उन बातों और ज़िम्मेदारियों पर अमल करना जो अल्लाह की तरफ़ से कही गई हैं.
. दार्शनिक धर्मशास्त्र : ईमान यानि दुनिया मौजूद हक़ीक़तों के बारे में जानकारी पैदा करना और उसके ज़रिये अपने नफ़स(ख़ुद)को कमाल(उत्तमता)तक पहुँचाना.
    लेकिन रहस्यवादीयों का नज़रिया यह है कि ईमान यानि सिर्फ़ अल्लाह को निगाह में रखना और उसके अलावह हर चीज़ से मुंह मोड़ लेना.
पश्चिमी देशों और ईसाइयों में ईमान की दो नई परिभाषायें सामने आई हैं:
. कट्टरपंथी आस्था या बौध्दिकता विरोधी आस्था; इस के अनुसार धर्म, अल्लाह पर ईमान और में बुद्धि और तत्वमीमांसा(metaphysics)में अक्ल और बुद्धि का कोई काम नहीं है.
. संतुलित आस्था; इसके अनुसार धार्मिक बुनियादों और उसूलों को साबित करने और मज़बूत बनाने के लिए बुद्धि व तर्कों का सहारा लिया जासकता है.अगरचे इनके अनुसार ईमान का दर्जा बुद्धि से ऊपर ही  होता है.
कुछ इस्लामी रहस्यवादियों और अख्बारियों की बातें भी कट्टरपंथी आस्था या बौध्दिकता विरोधी आस्था के नज़रिये से मिलती जुलती है. और ग़ज़ाली और मौलवी को एक हद तक संतुलित आस्था वाला माना जासकता है.
ऐसा लगता है कि पेचीदा और बे सर पैर के दार्शनिक तर्कों की वजह से ही नई आस्था और ईमान का नज़रिया सामने आया है.
Detailed Answer
हर जानदार कुछ चीज़ों से लगाओ रखता है. इन्सान भी भौतिक चीज़ों के अलावा ज्ञान, सुन्दरता, ...जैसी कुछ अध्यात्मिक चीजों से लगाओ रखता है.ईमान भी अध्यात्मिक लगाओ की एक आख्रिरी हालत है और दूसरी सारी अध्यात्मिक चीज़ें इसी के अधीन होती हैं.
ईमान का दायरा इन्सान के लिए मुकद्दस होता है; यानि इस जगह पर इन्सान का अध्यात्मिकता से यह लगाओ आखिर में पाक व मुक़द्दस मामले में बदल जाता है और उसके बाद ही बहादुरी, हिम्मत और प्रेम जैसे तत्व पैदा होते हैं.
ईमान से जुड़े हुए तत्व निर्धारित हैं इस लिए इन्सान को उनका ज्ञान होना चाहिए.[1]
विभिन्न समुदायों की तरफ़ सेईमानशब्द की वभिन्न परिभाषाएं की गई हैं.
शिया दर्शनशास्त्री और क़ुरआन के टीकाकार(मुफ़स्सिर)अल्लामा तबताबाई ईमान की परिभाषा इस तरह करते हैं:
ईमान सिर्फ़ ज्ञान और जानना ही नहीं है;क्योंकि क़ुरआन की कुछ आयतें ऐसे लोगों के बारे में भी हैं जो ज्ञानी और जानकार होने के बावजूद गुमराह होगये, इसलिए मोमिन के लिए ज़रूरी है की ज्ञान व जानकारी के साथ उसकी आवश्यक्ताओ को भी पूरा  करे और अपने ज्ञान के अनुसार चले और पाबन्द रहे यहाँ तक कि इल्म व ज्ञान के आसार उससे ज़ाहिर होने लगें. जिसे यह ज्ञान है कि अल्लाह एक है और उसके सिवा कोई अल्लाह और इबादत के लायक़ नहीं है, तो उसे चाहिए कि अपने इस ज्ञान का पाबन्द रहे; यानि इबादत के समय ख़ुद को बन्दा माने और अल्लाह कि ही इबादत करे.”[2]
क़ुरआन में अल्लाह के सारे हुक्म ईमान के इर्दगिर्द ही घूमते हैं. और सैकड़ों आयतों में इस बात की ताकीद की गई है की ईमान के ज़रिये ख़ुद को नजात दो.[3] इस लिए इस्लामी विद्वानों की निगाह में ईमान की विशेष अहमियत है.
इस्लामी धर्मशासत्रियों के बीच ईमान के बारे में तीन नज़रिये पाए जाते हैं:
. अशाएरह:  इमान यानी अल्लाह के होने, उसके नबियों को मानना और उसकी आज्ञाओं का पालन करना जिसे उसने अपने नबियों के द्वारा भेजा है, और दिली ईमान को ज़बान  से भी कहना; यानि उस ज़ाहिर होजाने वाली सच्चाई की गवाही देना और उसका क़बूल करना. इस में  एक तरफ़ मन से झुक जाना और तस्लीम होजाना है, और दूसरी तरफ़ एक तरह से सक्रिय रूप से गवाही और पुष्टि है.[4]
मोतज़ेला: ईमान यानि जिम्मेदारियों को अंजाम देना और फ़रीज़े को पूरा करना
अल्लाह और उसके नबियों की गवाही और पुष्टि ख़ुद ज़िम्मेदारी को अंजाम देना है. दूसरी ज़िम्मेदारियाँ, वाजिब को अंजाम देना और हराम को छोड़ना है.और जो इन्सान सारे फरीजों और वाजिब कामों को अंजाम देता है वोमोमिनहोता है.इन लोगों के अनुसार ईमान, अमल और कर्म से होता है ना सिर्फ़ नजिरये से.[5]
. अक्सर दार्शनिक धर्मशास्त्रियों का कहना है:
ईमान यानि: इस जगत की वास्तविकता का दार्शनिक ज्ञान . या दुसरे शब्दों में ; इंसानी नफ़स(आत्मा) जब कमाल और  सैद्धांतिक पूर्णता(Theoretical perfection) के पड़ाव तय करता है तो ईमान पैदा होता है.  तो वाजिब और अनिवार्य चीज़ों को अंजाम देना और हराम और मना की हुई चीजों से परहेज़ करना, ज्ञान और इल्म का बाहरी असर है.और यह आत्मा का अमली पूर्णता (Practical perfection)की तरफ़ सफ़र भी है, और मोमिन की श्रद्धा और अक़ीदा जितना  जगत की वास्तविकता के अनुसार होता जायेगा उसका ईमान उतना ही पूर्ण और कामिल होता जायेगा.[6]
इसीलिए सदरुल मुताअल्लेहीन जब अपनी किताब अस्फ़ारे अरबा” (चार यात्रायें” के तीसरे सफ़र में तौहीद की बात करना शुरू करते हैं तो लिखते हैं:
 
"ثم اعلم ان هذه القسم من الحکمة التى حاولنا الشروع فیها هو افضل اجزائها و هو الایمان الحقیقى بالله و آیاته و الیوم الآخر، المشار الیه فى قوله تعالى: «و المؤمنون کل امن بالله و الملائکته و کتبه و رسله»، و قوله: «و من یکفر بالله و ملائکته و رسله و الیوم الاخر فقد ضل ضلالاً بعیداً». وهو مشتمل على علمین شریفین: احدهما العلم بالمبدأ و ثانیها العلم بالمعاد، و یندرج فى العلم بالمبدأ معرفة اله و صفاته و افعاله و آثاره، و فى العلم بالمعاد معرفة النفس و القیام و علم النبوات».[7]
इस नज़रिये में अल्लाह और नबियों की पुष्टि एक तार्किक पुष्टि (मन्तिकी तसदीक़)है जिसका संबंध एक बाहरी वास्तिविकता औए हकीक़त से है और वो वास्तविक जगत की जानकारी और ज्ञान का एक हिस्सा है. फ़रीज़े और अनिवार्य बातों पर अमल और ज़िम्मेदारी के माना ईमान के माना से अलग हैं.
लेकिन रहस्यवादियों की निगाह में ईमान, इल्म व ज्ञान से पैदा होता है न कि कर्म व गवाही से. बल्कि ईमान का सार(हक़ीक़त) अल्लाह की तरफ तवज्जोह करना और उसके अलावा हर चीज़ से मुंह मोड़ लेना है.
"الایمان هو الذى یجمعک الى اله و یجمعک بالله، و الحق واحد و المؤمن متوحد و من وافق الاشیاء فرقّة الاهواء و من تفرق عن الله بهواه و اتبع شهوته و ما یهواه فاته الحق"  
 ईमान वह है कि जो तुम्हे ख़ुदा की तरफ़ मोड़ दे और तुम्हारा ध्यान उसकी तरफ़ करदे; यानि अल्लाह पर ईमान लाना उसकी तरफ़ ध्यान करना है और हक़ के अलावा हर चीज़ से मुह मोड़ लेना है. तो अल्लाह के अलावा चीज़ों से जितना लगाओ बढ़ता जायेगा ईमान उतना ही कम होता जायेगा. ईमान अल्लाह की तरफ़ तवज्जोह है और उसके अलावा की तरफ़ तवजोह उसके विपरीत है. और दो विपरीत चीज़ एक साथ नहीं हो सकती है.[8]
अक्सर ईसाई धर्मशास्त्रियों ने भी ईमान की परिभाषा में रहस्यवादियों का रास्ता ही अपनाया है. इयान बर्बूर लिखता है:
तिलीखकहता है कि दीन व धर्म का सम्बन्ध हमेशा  “आख़िरी लगाओ से होत है जिस की तीन विशेषतायें हैं. १.”लगाओ की आख़िरी हद तक पहुंचना” यानि बेख़ौफ़ प्रतिबद्धत्ता, भक्ति  और निष्ठा. इस जगह पर मौत व ज़िन्दगी का मामला है कि अगर इस राह में इन्सान की जान पर भी बात आजाए तो भी पीछे न हटे  २.”आख़िरी हद तक लगाओ” इन्सान में एक खास अहमियत और महत्त्व पैदा करदेता है और दूसरे सारे गुण उसी के अनुसार तय होते हैं३. “आख़िरी हद तक लगाओ” व्यापक होता है और उसमें ज़िन्दगी पाने के रास्ते छुपे होते हैं; क्योंकि उसका संबंध इंसानी की ज़िन्दगी के सारे पहलुओं से होता है.”[9]
दूसरी जगह पररिचर्डसनकी बात नक़ल करता है:
पवित्र किताब में लिखे ईमान शब्द को समझने क लिए ये जान लेना ज़रूरी है कि यह मसला,तार्किक ज्ञान द्वारा एक सोच या एक मतलब को स्थापित करने से कम नहीं है. यह समझने की बात है ना की साबित करने की.”[10]
 
इस नज़रिए में यह बताने के साथ साथ कि ईमान का  मसला ज्ञान और जानकारी से बढ़ कर है, यह भी बताना चाहता है कि ईमान बुद्धि और अक्ल के विपरीत काम और कोई अन्धविश्वास नहीं है.
नया नियम(New Testament)की बहुत सी इबारतों और आयातों में ईमान को डर और व्याकुलता के मुकाबले में बताया गया है.ईमान यानि: इन्सान के ईरादे का हिदायत पाना और उसकी आस्था में वृद्धि होना है ताकि उसे किसी मामले की सच्चाई और उसके सही होने का विश्वास होसके. एतेमाद या भरोसा एक ऐसी प्रतिक्रिया है जो अल्लाह, उसके माफ़ करने और उसके करम को कबूल करने से पैदा होता है, और इन्सान का काम भी भरोसा करना ही है. चाहे वो अल्लाह पर भरोसा हो कि इस तरह इन्सान अपनी ताक़त पर भरोसा नहीं करता. अल्लाह की तरफ़ तवज्जोह के बाद इन्सान हर उस चीज़ से मुंह मोड़ लेता है जिस पर वो पहले भरोसा करता था.ईमान  के लिए भरोसा, निष्ठा, और आज्ञा का पालन(इताअत) आवश्यक है.[11]
ईमान के लिए अंग्रेज़ी में(Fideism)[12] शब्द इस्तेमाल होता है. जो बुद्धिवाद या तर्कवाद(rationalism) के विरुद्ध इस्तेमाल होता है. ईमानवादी  या आस्थावादी नजरिये के अनुसार धार्मिक  वास्तविकताओं को सिर्फ ईमान से ही पाया जासकता है और तर्कों और बुद्धि द्वारा उन वास्तविकताओं तक नहीं पहुंचा जासकता है. इस मसले का इतिहास बहुत पुराना है और संत पोल्स तक पहुँचता है. लेकिन इस मसले को  १९ शताब्दी से अब तक गंभीरता के साथ लिया गया है जो विशेष तौर पर पश्चिमी दुनिया और ईसाइयत में बहुत ज़ियादा प्रचलित है.
आस्थावाद दो तरह के हैं, कट्टर और संतुलित:
   १. कट्टरपंथी आस्था या बौध्दिकता विरोधी आस्था;
कट्टरपंथ आस्थावादी “शोस्तोफ़” कहता है:
सारी बौद्धिक कसौटियों का इन्कार सही ईमान का एक हिस्सा है.” उसका मानना है कि  इन्सान धार्मिक शिक्षाओं के अनुसार बग़ैर किसी बौद्धिक तर्क के इस बात पर ईमान ला सकता है कि २+=५ होता है. इस तरह का ईमान और आस्था सही व सच्चे ईमान का नमूना है.”[13]
कियार्क्गूर”  और दुसरे कट्टरपंथ आस्थावादियों के अनुसार, धार्मिक वास्तविकतायें किसी भी तरह के बौद्धिक तर्कों से साबित नहीं की जासकती है, उन्हें सिर्फ़ ईमान के ज़रिये ही हासिल किया जासकता है. धार्मिक उसूल न सिर्फ़ अक्ल से परे हैं बल्कि अक्ल के विपरीत हैं.[14]
२. संतुलित आस्थावाद;
इस तरह की अस्थावाद “अगुसिनी” की ईसाई रवायत से पैदा हुई है. इस में कहा गया है की अगरचे ईमान व आस्था अक्ल व तर्क से उपर है लेकिन कहीं कहीं धार्मिक वास्तविकता को बताने और समझाने में काम आसकते हैं.[15]
 इस्लामी विचारधारा में अस्थावाद:
अगरचे इस्लाम में, ईसाइयत और पश्चिमी दुनिया की तरह कट्टरपंथ आस्थावाद नहीं पाया जाता है लेकिन उसके बावजूद कुछ इस्लामी विचारकों की बातें पश्चिमी आस्थावाद से मिलती जुलती हैं.
जैसे अखबारी सोच हर तरह के तर्क और बौद्धिकता को धर्म व दीन से अलग जानती है.
 साथ साथ “मुह्युद्दीन अरबी” “ फुतुहाते मक्किया” में और उन जैसे कुछ इस्लामी रहस्यवादी(आरिफ़) के यहाँ कट्टर आस्थावाद नज़र आता है. उनके अनुसार अगर कोई तर्क व बुद्धि द्वारा ईमान पैदा करता है तो वह असल में ईमान लाया ही नहीं; क्योंकि सच्चा ईमान वह है जो वही व श्रुति पर आधारित होता है और यह ईमान बुद्धि और तर्क पर आधारित है.[16]
  ईमाम “मोहम्मद ग़ज़ाली” को संतुलित आस्थावादी कहा जासकता है. उनका कहना है कि अध्यापक या उस्ताद की बातों से ईमान में वृद्धि नहीं होसकती है. उनके अनुसार ईमान ऐसा नहीं कि अक्ल व तर्क से उसकी कोई जंग हो. ईमान अल्लाह का एक रौशन नूर है जो वह अपने  करम और रहम से अपने बन्दों को देता है.
“मौलवी” भी सिर्फ़ तर्क और बुद्धिकता के सहारे ईमान हासिल करने को बैसाखी पर चलने जैसा मानते हैं और बुद्धि व अक्ल को इश्क़ व ईमान में डूबा हुआ मानते हैं. उनके अनुसार तर्क द्वारा हासिल किया हुआ ईमान कभी भी ढह सकता है.[17]
नोट:
ऐसा लगता है कि  इस्लाम  या ईसाइयत दोनों ही में पेचीदा और बे सर पैर के दार्शनिक तर्कों और ईमान की हकीक़त को दार्शनिक मामलों में उलझा देने की वजह से ही नई आस्था और ईमान का नज़रिया सामने आया है.
और इसी तरह ईसाइयत में इस मामले में आध्यात्मिक दावों के कमज़ोर प्रमाणों की वजह इस मसले को और मज़बूती मिल गई. दर अस्ल बहुत से ईसाई आस्थावादी विचारक यह चाहते हैं कि धर्म के  रत्न और उसकी हकीक़त को पेचीदा और बेजान बौद्धिक,तार्किक व धर्मशास्त्र की बहसों से आज़ाद करदें.[18] 
 

[1]. पॉल तिलीख, पूयाईये ईमान, तर्जुमा, हुसैन नौरोजी,प,१६,१७, इन्तेशाराते हिकमत. तेहरान, १३७५ हिजरी शम्सी.
[2].ताबताबई, सय्यद मोहम्मद हुसैन, तर्जुमा तफसीर अलमीज़ान,ज१८, प४११,४१२, बुनियादे इल्मी व फर्हंगिये अल्लामा ताबबाई,१३६३ हिजरी शम्सी 
[3]. जैसे सुरे असर .
[4]. देखो: मक़ालातुल इस्लामियीन, अबुलहसन अशअरी,ज१, प३४७, मिस्र, १९६९ ई ; अल्लमअ, प७५, प्रकाशित मदीना, १९७५ ई; तफ्ताज़नी, शरहुल मक़ासिद, ज२, प१८४, प्रकाशित उस्मानी, १३०५ हिजरी, मोहम्मद  मुजतहिद शबिस्तरी,ईमान व आज़ादी, तरहे नौ, तेहरान, तीसरा संस्करण ,१३७९ हिजरी शम्सी. 
[5]. मोतज़ेला के अक़ाएद  के बारे में, अहमद अमीन, फ़ज्रुल इस्लाम व ज़ुहल इसलाम, मोतेज़ला की बहस देखें.
[6]. शहीदे सानी,हकाय्कुल इस्लाम ,  प१६,१७, १८.
[7]. सदरुद्दीन , मोहम्मद शीराज़ी, अल्हिक्मातुल मुताआलियःफिल अस्फारिल अर्बअह,ज६, प७, दारुल एहयाइत्तोरासिल अरबी, बेरूत, लेबनान, चौथा संस्करण, १९९०ई. 
[8]. खुलासे शरहुत्तारीफ़, पांचवीं सदी हिजरी की इरफानी किताब,प२२७, इन्तेशारत बुनियादे फरहंगे ईरान.
[9]. इयान बरबूर, इल्म व दीन, तर्जुमा (फ़ारसी) बहाउद्दीन खुर्रमशाही,प२५७, मर्कज़े नश्रे दानिश्गाहे तेहरान, १३६२ हिजरी शम्सी.
[10].  पिछला,प २५९.
[11]. Alam Riehardson, cd. A Theological Work book of the bible ) london, SCM press, 1951 pb पिछला प २६०.
[12]. आस्थावाद की बहस , किताब “फरहंगे वाजेहा” से लिया गया, लेखक अब्दुर्रसूल बयात और दुसरे लोग.
[13]. पिछला
[14]. पिछला
[15]. पिछला
[16]. पिछला
[17]. पिछला
[18]. पिछला
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